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बुधवार, 28 सितंबर 2022

मेवाड के महान संत श्री धनदासजी महाराज mewad ke mahan sant dhandasji maharaj


 संत श्री धनदासजी महाराज



महान सन्त उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी है, जैसे संत शिरोमणि गुरु रविदास , सन्त कबीरदास, संत गोकुल दास , घासीदास। 'सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ है - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा।

गुरु श्री मोहन महाराज
ऐसे ही एक विरले पुरुष का जन्म मेवाड की महान भुमि , अरावली पर्वतमाला मे कुंभलगढ से 45 किलोमीटर दुर सायरा - रणकपुर  रोड पर बोखाडा नामक गाँव मे विक्रम संवत 2012 फाल्गुण मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मेघवाल संत मोडीदासजी के घर पर एक दिव्य बालक का जन्म श्री मति डाली बाई की कोख से जन्म लेता है । परिवार मे हर्ष का माहौल होता है , आस पडौस के लोगो द्वारा मोडीदासजी को बधाईयां देकर मुंह मिठा करवाया जाकर मंगल गीत गाये जाते है । धीरे धीरे बालक धनदासजी बडे होते है। तत्कलीन परिवेश मे पढ़ाई का महत्व पता नही होने ओर सुलभ शिक्षा नही मिलने से धनदासजी ने अक्षर ज्ञान कर ही लिखने की क्षमता हासिल कर‌ली थी । साथ ही वे अपने पिताजी के साथ गृह कार्य सहित किसानी के कार्यों मे सहयोग करने लग गये । धीरे धीरे धनदासजी यौवन अवस्था मे आये तो पिता श्री मोडीदासजी ने उनका विवाह नान्देशमा  निवासी मगनदासजी की सुपुत्री रतनी बाई के साथ करवा लिया। लेकिन धनदासजी का मन तो कही और ही लगा हुआ था , उनके मन मे तो प्रभु भक्ति की ओर लगा हुआ था । इसी दौरान धनदासजी को किसी यात्रीक से यह ज मिली की सिरोही जिले के वीरवाडा गाँव मे एक पहुंचे हुऐ साधु श्री मोहन महाराज धुणी रमाये हुए है , जिनके दिव्य तेज से लोगो का मन हर्षित हो जाता है , और उनके सारे दुख -  संताप  और मन की पीडा दुर हो जाती है । एक दिन धनदासजी परिवार ओर अपने परिवार को बिना बताये वह घर छोडकर पहुंच जाते है वीरवाडा मोहन महाराज के दर्शन के ओर वही के होकर रह जाते है।  वहां पर महाराज मोहन महाराज की सेवा सुश्रुषा मे मन लगाकर सेवा करते है । इधर घर से निकलने पर उनके परिवार के लोगो ने धनदासजी को आस पडौस के गाँव स इत सगे सम्बन्धी लोगों के वहां पर जाकर पता किया लेकिन कोई समाचार नही मिला अंत मे डेढ साल बाद घर परिवार को जानकारी मिली की धनदासजी तो वीरवाडा मे मोहन महाराज की सेवा मे लगे हुए है । परिवार के लोग उनको घर लाने हेतु वहां गये लेकिन लाख कोशिश के बाद भी वह घर नही आए , थक हार कर परिजन वापस आ गये ओर धनदासजी पुनः गुरु की सेवा मे लग गये । इसी दौरान एक दिन मोहन महाराज को अपनी दिव्य दृष्टि से यह जानकर की धनदासजी के पिताजी का परिनिर्वाण हो गया है , वह धनदासजी को कहते है की तुम्हे शुबह ही घर जाना होगा। यह सुनते ही धनदासजी स्तब्ध रह गये लेकिन गुरु की आज्ञा को टाल भी नही सकते थे। वह शुबह होते ही ही अपने घर को रवाना हुए तो गुरु मोहन महाराज ने उनको कागज का एक टुकडा देते हुए कहा की पैदल मत जाना आज तुम्हे हर जगह से साधन मिल जायेगा , गुरू की कृपा उस वक्त वाहन भी कम ही चलते थे । लेकिन धनदासजी को एक बस मिली वो उसमे बैठकर अपने गन्तव्य की ओर चले , बस कंडक्टर ने टिकट मांगा तो धनदासजी ने वह कागज का टुकडा आगे बढाया तो हजार का नोट बन गया । धनदासजी भी अवाक रह गये। इधर बोखाडा से दो व्यक्ति धनदासजी को लेने के लिए वीरवाडा पहुचे तो महाराज ने बताया कि उनको तो मैंने सुबह ही घर के लिए भेज दिया है वही धनदासजी जी महाराज जी अपने घर पहुंच गए थे वहां पर अपने सभी सगे संबंधी मोडीदासजी की अंतिम यात्रा की तैयारी कर रहे थे। धनदासजी ने अपने पिताजी को समाधी देकर सारे सामाजिक रीति रिवाज पुरे कर पुनः गुरु की सेवा के लिए निकल पडे। वीरवाडा जाकर गुरु की सेवा के दौरान महाराज ने भी उनकी बहुत ही कठिन परिक्षाए ली , जिनमे वे पुर्ण रूप से गुरु की परीक्षा मे सफल रहे । मोहन महाराज ने धनदासजी को योग्य शिष्य पाकर अपनी सारी ब्रह्मज्ञान की विधा का सार धनदासजी को सुनाकर अपना समय समाज सुधार और समाज सेवा मे लगाने की बात की । इस तरह बारह वर्ष सेवा कर धनदासजी ने अपना तत्व ज्ञान और कर्म करने के लिए गुरु से आज्ञा मांगी तो मोहन महाराज ने उन्हें अपनी भेंट स्वरूप अपनी चरण पादुका ओर अपना आसन , एक रूपया ओर पुजा के लिए शालिग्राम पत्थर देकर विदा किया । ओर साथ ही यह आदेश दिया की बारह धुणी तापने के बाद मै स्वयं बताऊंगा की तुम्हें कहा पर अपना स्थान बनाकर धुणी की स्थापना करनी है। मोहन महाराज की आज्ञा का पालन करते हुए धनदासजी ने जब बारह धुणी पुरी की तो गुरु महाराज ने स्वप्न मे बात ,बोखाडा मे धुणी का आदेश दिया ओर उसी स्थान पर आज 73 गावो का धुणा स्थित है। हरि स्मरण करते हुए उन्होंने अपना गृहस्थ जीवन भी निभाया , उनकी उनके पंच पुत्र हुए , प्रकाशदास , सुरेशदास , गोविंद दास , लक्ष्मणदास और भगवान दास हुए । धनदासजी महाराज ने समाज मे व्यापक कुरीतियों सहित समाज सुधार के अनेको कार्य किए जिनकी लोग आज भी प्रशंसा करत है। ऐसे महान संत का परिनिर्वाण 29.09.2010 को हुआ जिनका भव्य शोभा यात्रा निकाल कर अंतिम विदाई दी गई । वर्तमान में इस धुणी पर प्रकाशदास जी महाराज पूजा कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे है।






मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

sant bijnatth sundha mata



महान मेघवल संत श्री बिजनाथजी महाराज 




संत मत वास्तव मे किसी भी समाज को विकास की रह पर लाने का का मुख्य स्तम्भ हिता हैं !संत ही समाज कोसही रास्ते पर लाकर सही दिशा दे सकते हैं !ऐसे ही महान संत श्री बीजनाथ महाराज का जन्म राजस्थान के दक्षणी भू भाग मे अवस्थित जलोरे जिले के अरावली पर्वत माला की गोद मे स्थित माँघनगरी भीनमाँलसे मात्र 7 किमी 0दूरी पर स्थित गाजीपुरा गाँव मे मेघवल जाती के परमार गोत्रीय श्री झुझाराम के घर पर एक होनहार बालक छोगारम का जन्म विक्रम संवत 2012 की माघ वदी 5 बुधवारको हुआ था !आपकी माता श्री का नाम मौतु बाई था !जो सोलंकी गोत्रीय थी जिंका पियर राजपुरा मे था !आप दो भाई थे बड़े भाई प्रताप भाई घर के कामकाज मे व खेतीबाड़ी मे पिताजी का हाथ बटाते थे !क़हतए हैं की पूत पूत के पग पालने मे ही दिखाई देते हैं ,उसी तरह आप भी अपने जन्म जात लक्षण माता-पिता को दिखाने लगे !बाल्यकल मे ही गाँव मे या आस-पड़ोस के गांवो मे होने वाले जुम्मा -जागरण मे परिवार को बिना बताए ही चले जाते थे !आप राम भजन मे मस्त रहते उधर घर वाले का खोज खोज कर बुरा हाल होता था !गाँव मे कोई साधू संत या सन्यासी के आ जाने उसकी संगत मे मस्त रहते थे !घर से स्कूल  भेजने पर कनही अन्यत्र जाकर राम नाम स्मरण मे मगन रहते थे !आपकी इस प्रकार की साधू प्रवती देख कर आपके माता -पिता को यह अहसास होने लगा की बालक छोगाराम वेराग्य की ओर जा रहा हैं आपस मे विचार कर चोगारम के विवाह का विचार कर मात्र 16 वर्ष की उम्र मे ही पास के गाँव दांतलावास गाँव के बाघेला गोत्रीय धीरारामजी की सुपुत्री सणगारी देवी के साथ पाणीग्रहण संस्कार कर दिया !सांसरिक जीवन मे आपके पाँच पुत्र रत्न हुये ,जिनके नाम भेरारम ,नटवरलाल,जबराराम ,गनेशाराम,क्रष्ण हैं !
कालांतर मे मे भी आपको राम स्मरण का मोह नहीं छूटा गृहस्थी के साथ प्रभु भक्ति की दोहरी भूमिका निभाते हुये आपने अन्नत सांसरिक जीवन का त्याग करने का विचार कर ई 0 सन 2001 मे आप बिना बताए घर छोड़कर तीर्थ यात्रा पर चले गए !आपने चार धाम की यात्रा की अंत मे अहमदाबाद गुजरात मे भेष गुरु नाथ संप्रदाय के श्री मंगलनाथजी महाराज (नाटेशरी पंथ )से गुरु दीक्षा ली !कुछ समय गुरु चरणों मे बिता कर एकांतवास मे मे रामस्मरण का मानस बनाकर सुन्धापहाड़ की कन्दराओ मे एकांतवस उययूकत मानकर वनहा पर सुन्धा मटा मंदिर के ऊपर लगभग 2 किलोमीटर ऊपर दीवागुड़ा नमक स्थान पर आसान लगाकर भक्ति मे लिन हो गए !वनहा पर आप श्री ने अपने अथक मेहनत से पहाड़ी की तहलटी से चुना पानी लेजाकर एक कमरे का निर्माण करवाया जो आपकी मेहनत का ही फल हैं !इस तरह तहलहटी आवागमन से आपके परिवार जन तक भी यह खबर पहुच गई की चोगारम सन्यासी हो गया है ,ओर सुन्धा पहाड़ पर तपस्या करते हैं ,परिवार जन भी उनको घर ले जाने  के लिए काफी अनुनय विनय किया ,लेकिन आपने वेरागी से मोह नहीं छोड़ा !!

वर्तमान मे आप सुन्धा माता सड़क पर राजपुरा गाँव से बाहर अपना आश्रम बनाकर रहते हैं ,जनहा पर विशाल शनिदेव मंदिर ओर बाबा रामदेवजी मंदिर का निर्माण कार्य चालू हैं !यानहा शनिवार ओर मंगलवार को मेला लगता हैं !
ऐसे संत महात्मा के चरणों मे सत-सत नमन

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

surdasji maharaj rampura sirohi

बाल ब्रह्मचारी महान मेघवाल संत श्री श्री 1008 श्री सूरदास जी महाराज
राजस्थान की धन्य धरा के अरावली पर्वतमाला की गोद मे स्थित देव नगरी सिरोही के पास स्थित रामपुरा नामक ग्राम मे विक्रम संवत 1917 ईस्वी सन 1959 को जोगचंद गोत्रीय मेघवाल परिवार मे श्री मगाराम जी के घर पर उनकी धर्म पत्नी श्रीमती कंकु देवी की कोख से एक होनहार बालक सवाराम का जन्म हुआ था।  





    आप चार भाई क्रमश रूपारामजी, गणेशाराम जी, मोहनलालजी एवं आप सबसे छोटे होने से माता - पिता  का सम्पूर्ण वात्सल्य पूर्ण रुप से मिलने से आपका लालन - पालन बड़े लाड प्यार से  किया गया, तत्कालीन समय मे शिक्षा के प्रति समाज मे रुझान नहीं होने पर भी आपकी माताश्री ने आपको शिक्षा हेतु विद्यालय भेजा, कुशाग्र बुद्धि के धनी बालक सवाराम ने  कक्षा 2 तक शिक्षा ग्रहण की लेकिन कुदरत को ये मन्जुर नहीं था प्रकृति के कोप मे उस समय फेले चेचक रोग से आपके दोनों नेत्र चले गए इस कारण आपकी पढ़ाई बीच मे ही रुक गयी। 
    इस तरह आंखो की ज्योति जाने पर आपका पूरा समय घर पर ही बीतता था और ग्राम मे आने वाले साधू सन्तो की संगत करते और गाँव मे होने वाले रात्री जागरण मे आने जाने से आपमे राम  भक्ति का मोह जाग्रत हो गया तदुपरान्त आपने सन 1968 मे देवगिरि, जिला सिरोही मे अपने गुरु विष्णुदास जी महाराज से गुरु दीक्षा ग्रहण कर  भूतेश्वर महादेव मंदिर रामपुरा मे राम भजन करने लगे, जहा लगभग 40 साल तक आपने भक्ति की । 
आपने राम स्मरण के लिये एकांतवास को उपयुक्त जगह मान कर सिरोही -अणगोर  रोड पर राम रंग धाम की स्थापना की ,विशाल भु भाग पर आपने अपने भक्त जनो  के बेठने के लिये धर्मशाला का निर्माण कराया !
जंहा पर वर्तमान मे स्वेत संगरमर से राम मंदिर का निर्माण जारी हैं !
आपके अनुयाई सम्पूर्ण भारत वर्ष से आपके दर्शनार्थ आते हैं ,आपके आश्रम मे प्रत्येक पुर्णिमा को मेला लगता हैं !वंही आषाढ़ सुदी पुर्णिमा को विशेष भजन संध्या होती है ,जंहा महान ख्याति प्राप्त भजन गायक अपनी परस्तुति देतेहैं !गुरुवर स्वयं भजन गायक हैं !

आपके अनुयायि  हर जाती वर्ग से हैं जो आपके दर्शन मात्र से अपने आपको धन्य मानते हैं !
ऐसे महान कर्म योगी गुरुवर के चरणो मे कोटी-  कोटी वन्दन !!! 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

maya meghwal श्री माया मेघऋषि जी कथा

                             श्री माया मेघऋषि जी कथा
मायाजी मेघऋषि जी मेघवाल समाज के महान संत हुए है| वे पाटन मेँ एक कुटिया मेँ रहते तथा भगवान का सिमरन करते थे| उस समय पाटन का राजा सिद्धराज सोलंकी था| एक बार राजा ने जनहितार्थ तालाब खुदवाना प्रारंभ किया| जसमा नाम की एक स्त्री वहाँ काम पर आती थी| वह बहुत ही सुंदर थी इसलिए राजा उस पर मोहित हो गया तथा उसको अपनी पटराणी बनाने का ख्वाब देखने लगा| एक दिन राजा ने जसमा का पीछा कर उसे रोका| राजा जसमा से बोला कि मैँ तुमको अपनी पटराणी बनाना चाहता हूँ| जसमा तो एक सती तथा धार्मिक स्त्री थी इसलिए वह राजा की अभद्र बात सहन नही कर सकी|उसने राजा को शाप देते हुए कहा कि आपने जो जनहितार्थ तालाब खुदवाया है उसमे कभी बुँद भी पानी नही ठहरेगा तथा खारा ही होगा| और देखते ही देखते जसमा अपने प्राण देने लगी | यह देखकर राजा बहुत ही घबराया तथा उसके चरणोँ मेँ गिर पडा| राजा क्षमा याचना करते हुए बोला आप मेरी माता समान हो मुझसे अनजाने मेँ यह पाप हो गया| आप मुझ पापी को क्षमा कर शाप वापस ले लिजिए| जसमा ने कहा कि तीर कमान से तथा शब्द जुबान से निकले हुए वापस नही होता| राजा फिर बोला आप कुछ न कुछ उपाय बताइए अन्यथा यह तालाब किसी अर्थ का नही रहेगा| जसमा ने अंतिम साँसे लेते हुए कहा कि यदि कोई बत्तीस लक्षणोँ वाला व्यक्ति इस तालाब मेँ काया होमेगा तो ही इस शाप से मुक्ति मिल सकती है| और जसमा प्राणमुक्त हो गई| राजा को अब चिँता होने लगी कि आखिर बत्तीस लक्षणोँ वाले व्यक्ति को कहाँ ढुँढने जाएँ| उसने काशी से विद्वान बुलवाया और कहा कि आप शास्त्रोँ का अध्ययन कर ऐसे व्यक्ति का नाम बताओ| विद्वान बोले राजन आप के राज्य मेँ केवल दो ही ऐसे व्यक्ति है| राजा ने पुछा कौन कौन| विद्वान बोले कि एक तो आप स्वयं तथा दूसरे मायाजी मेघवाल जिनकी नगर से बाहर कुटिया मेँ हरि का सिमरन करते है| राजा ने अपने सैनिको को बुलाया और कहा कि जाओ और मायाजी को दरबार मेँ हाजिर करो| सैनिक मायाजी को प्रणाम कर बोले महाराज आप हमारे साथ दरबार मेँ चलेँ राजाजी ने बुलाया| मायाजी दरबार मेँ पहुँचे तथा राजा के सामने हाथ जोडकर खडे हो गए| राजा ने भी मायाजी को प्रणाम किया और उनको दरबार मेँ प्रयोजन बताया| राजा ने कहा केवल हम दोनो पर बात अटकी है| राजा ने कहा कि या तो आप काया होमे तो आप का बडा उपकार होगा अन्यथा मुझे ही यह काम करना पडेगा|मायाजी बोले मै काया होमने को तैयार हूँ| दूसरे दिन नगरवासी गांजो बाजो के साथ पालकी मेँ बिठाकर मायाजी को तालाब पर ले गए| मायाजी ने सभी नगरवासियोँ को अंतिम प्रणाम किया| फिर मायाजी ने अग्नि देवता का आहवान किया| कुछ ही क्षणोँ मेँ स्वतं ही अग्निकुँण्ड बना तथा अग्नि प्रज्वलित होने लगी| मायाजी ने सिमरन कर कुँण्ड मेँ पाँव धरे और देखते ही देखते पूर्ण रुप से अग्निकुँण्ड मेँ समा गए| कुछ देर बाद तालाब मीठे पानी से लबालब भर गया| राजा व नगरवासी मेँ खुशी की लहर दौड गई| इस प्रकार मायाजी ने जनहितार्थ अपने प्राणोँ की आहुति देकर तालाब का जल मीठा किया| मेघवँश सदैव मायाजी का ऋणी रहेगा जिनके बलिदान से समाज को पारंपरिक रीति रिवाजोँ से मुक्ति दिलाई| श्री माया मेघऋषि जी के चरणोँ मेँ शत शत नमन अभिवंदन

amar shahid rajaram meghwal (rajiya) jodhpur fort

              अमर शहीद राजाराम मेघवाल (राजिया )



शेर नर राजाराम मेघवाल भी जोधपुर नरेशो के हित के लिए बलिदान हो गए थे !मोर की पुंछ के आकर !वाले जोधपुर किले की नीव जब सिंध के ब्राह्मण ज्योतिषी गनपत ने राव जोधाजी के हाथ से वि ० स० 1516 में रखवाई गई तब उस नीव में मेघवंशी राजाराम जेठ सुदी 11 शनिवार (इ ० सन 1459 दिनाक 12 मई ) को जीवित चुने गए क्यों की राजपूतो में यह एक विश्वास चला आ रहा था की यदि किले की नीव में कोई जीवित पुरुष गाडा जाये तो वह किला उनके बनाने वालो के अधिकार में सदा अभय रहेगा !इसी विचार से किले की नीव में राजाराम (राजिया )गोत्र कडेला मेघवंशी को जीवित गाडा गया था ! उसके उअपर खजाना और नक्कार खाने की इमारते बनी हुई हैं ,इनके साथ गोरा बाई सती हुई थी !राजिया के सहर्ष किये हुए आत्म त्याग एवम स्वामी भक्ति की एवज में राव जोधाजी राठोड ने उनके वंशजो को जोधपुर किले पास सूरसागर में कुछ भूमि भी दी जो राज बाग के नाम से प्रसिद्ध हैं !और होली के त्यौहार पर मेघवालो की गेर को किले में गाजे बजे साथ जाने का अधिकार हैं जो अन्य किसी जाती को नही हैं !परन्तु उस वीर के आदर्श बलिदान के सामने यह रियायते कुछ भी नही हैं !

कंही -कंही राजिया और कालिया दो पुरुषो को नीव में जीवित गाड़े जाने का वर्तान्त भी लिखा मिलता हैं जो दोनों ही मेघवाल जाती के थे ! 

इस अपूर्व त्याग के कारण राज्य की और से प्रकाशित हुई कई हिंदी और अंग्रेजी पुस्तको में राजिया भाम्बी के नाम का उल्लेख श्रदा के साथ किया हैं ! 

आज से लगभग 135 वर्ष पहले इ ० सन 1874 (विक्रम संवत 1931 )में जोधपुर राज्य ने "THI JODHPUR FORT "नाम की अंग्रेजी पुस्तिका प्रकाशित की थी ,उनके पेज 1 पंक्ति 12 में अमर शहीद राजाराम मेघवंशी (भाम्बी )के आदर्श त्याग के विषय में यह लिखा हैं :-
-------------"its (Jodhpur )foundation was laid in 1459 A.D. when a man "bhambi rajiya "was interred alive in tha foundeto invoke good fortuneon its defenders and to ensurs its imprognabilityt "............"(vide "tha jodhpur for"page 1 line 12 frist edition ,1874 A.D.published by jodhpur state )
अर्थात ........इस किले (जोधपुर गढ़ ) की नीव इ ० सन 1459 (विक्रम संवत 1516 )में रखी थी तब एक राजिया भाम्बी (मेघवंशी)इस किले के स्थायित्व के लिए जीवित इसकी नीव में चुना गया )
वि ०स ० 1946 फाल्गुन सुदी 3 शनिवार( इ ०सन 1890 तारीख 22 फरवरी )को इंग्लेंड के ,राजकुमार प्रिंस एल्बर्ट विकटर ऑफ़ वेल्स ,भारत यात्रा करते जोधपुर तब स्टेट की और से "गाइड टु जोधपुर "(जोधपुर पथ प्रदर्शक )नाम की अंग्रेजी पुस्तक प्रकाशित हुई !उसके पृष्ठ 7 में राजाराम के लिए छपा :-.......................................
"......."tha fort (jodhpur)...............when tha foundation was laid ,aman rajiya bhambi by name ,was interred alive ,as an ausppicious omen,in a corner over which were built two apartments now occupied by tha treasury and tha nakar khana (country band) .in consideration of this sacrfice ,rao jodha bestowed a piece of land "raj bai bag"near sursagar,on tha desendants of tha deceased and exempted them from "begar"or forced lebour .........("vide guide to jodhpur 1890 A<D<page 7 published by tha order of H.H. tha maharaja jaswant singh G.C.S.I.,and maharaj dhiraj col .sir pratap singh K.C.S.I.&c. jodhpur on tha auspicious of tha visit his royal highness tha prince albert victor of wales. 1890 A.D. page 7)


अर्थात .................जब जोधपुर दुर्ग की नीव (इ ० सन 1459 में )रखी गई तब शुभ सगुन तथा उसके स्थायित्व के लिए राजिया भाम्बी नाम का पुरुष उसमे जिन्दा चुना गया !जन्हा पर खजाना और नक्कारखाना की इमारते बनी हुई हैं !इस क़ुरबानी के लिए राव जोधा ने उसके वंशधरो को कुछ भूमि सूरसागर (जोधपुर )के पास "राजबाग"नाम से इनायत की और उन्हें नि:शुल्क सेवा से बरी कर दिया !"

इ ० सन 1900 (वि ० स ० 1957 ) में राजपुताना के सर्जन लेफ्टिनेन्ट कर्नल डाक्टर एडम्स आई ० ऍम ० एस०; ऍम ० डी ० (इत्यादी)जोधपुर ने "दी वेस्टर्न राजपुताना स्टेट "नाम का अंग्रेजी में सचित्र इतिहास लन्दन में छाप कर पुन :प्रकाशित ! उसके पृष्ठ 81 में भी राजाराम के त्याग का उल्लेख हैं !

इस तरह से तत्कालीन जोधपुरस्टेट द्वारा प्रकाशित कई पुस्तको में राजाराम मेघवाल (राजिया)के बलिदान का उल्लेख मिलता हैं !

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

महान मेघवाल संत "महाचंद ऋषि "


                                                महान मेघवाल संत "महाचंद ऋषि "




पडिहार (प्रतिहार पुरिहार)कुल में एक अत्यंत प्रतापशाली वीरशिरोमणि प्रसिद्ध राजा "नाहड़राव "(नाहरराव)हुए हैं !इनकी राजधानी मंडोर (मंडावर) थी जिसको साधू भाषा संस्कृत में "मन्दोदरी"कहते हिं !
यह वही स्थान हैं जंहा रावण ने मन्दोदरी के साथ शादी की थी , नाहड़राव प्रसिद्ध प्रचंड वीर था जो प्रथवीराज चोहान का सामंत था !
इनके शरीर में कुष्ठ की बीमारी थी !एक समय यह नाग पहाड़ के जंगल आखेट खेल रहे थे ,संयोग से एक सूअर इनके सामने से गुजरा नाहर राव ने इनका पीछा !भागते भागते वह सूअर एक मुंजे की झाड़ी गायब हो गया !यह उन्हें ढूंढते-ढूंढते परेशां हो गये लेकिन उसका कंही पता नहीं चला !धुप और प्यास से व्याकुल होकर नाहड़राव पानी की खोज करने लगे ,अंतमें जरा से खड्डे में पानी मिला !राजा ने घोड़े से उतर कर उस पानी हाथ मुंह धोया और पानी पिया तो देखते क्या हैं, की उनके शरीर का कुष्ट दूर हो गया हैं !नाहड़ के विस्मय का ठिकाना नही रहा ,उन्होंने वंहा पर खुदवाना आरम्भ किया और काफी लम्बी छोड़ी दुरी में खुदवा दिया ,लेकिन उस गड्डे से जयादा नही आया !फिर उन्होंने काशी से पंडितो को बुला कर वंहा यज्ञ कराया ,पंडितो ने उस यज्ञमें नर बलि देने के लिए कहा !नाहड़राव ने इसकी सुचना आम जनता में करवा दी ,यह सुन कर वन्ही अजयपाल जी की धुनी के पास पहाड़ में गाये चरते हुए 'महाचंद "नामक मेघवाल ने आकर प्रसन्नता पूर्वक उस यज्ञ में परोपकरार्थ अपनी बलि दे दी !देखते ही देखते उस गड्डे में से पानी उबकने लगा और वंहा पर पानी भर गया !


नाहड़ राव ने वंहा पर वि ० स ० 1114 में तालाब खुदवा कर बंधवा दिया जो वर्तमान "पुष्कर" (राजस्थान में
अजमेर के पास ) के नाम से मशहूर हैं !ओर एक भी शुरू करवा दिया ,महाचंद गाये चराता था ,इसलिए उसके नाम से एक घाट बंधवाया ,जिसका नाम गऊ घाट हैं ! यह गऊ घाट पुष्कर के अन्य घटो में प्रशिद्ध हैं ,और सबसे पहले का हैं !इस पर आरम्भ से ही मेघवंशियो के गुरु ब्राह्मणों का अधिकार रहा हैं !बिच में अन्य ब्राह्मणों ने इस पर अपना अधिकार करना चाहा ,और कई दिनों तक आपस में झगड़ा चलता रहा !अंत में छोटुरामजी गुरु ब्राह्मण के पोते "हाथीरामजी" को अन्य पंडो ने एक रूपये के स्टाम्प पर वि ० स ० 1960 में पंचायत द्वारा राजीनामा लिख कर दे दिया ,और इस पसिद्ध गऊ घाट पर मेघवंसशी आदि अन्य 6 जातियों को भी स्नान करने और दान दक्षिणा लेने का अधिकार दे दिया !कहा जाता हैं की एक समय खींवासर(मारवाड़ )के ठाकुर साहेब यंहा स्नान करने के लिए आये थे !उन्होंने स्नान कर यहाँ गऊ घाट पर विश्राम किया !उनके सपने में आकर महाचंदजी ने अपने त्याग और बलिदान का सन्देश दिया और यह भी कहा की यदि कोई यंहा मेरी यादगार
बना दे तो उसकी मनोकामना सफल हो जाएगी !उक्त ठाकुर साहेब ने उनके बलिदान के स्थान पर एकछतरी बनवा दी ,जो गऊ घाट के सामने स्थित हैं !स्वार्थी और धर्म के ठेकेदारों ने उंच -नीच की भावना से मेघवंशियो के इस अपूर्व त्याग और गोरवमय बलिदान को नष्ट करने के लिए यह छत्री उन्ही ठाकुर की बतलाते हैं ,लेकिन काफी छानबीन और खोज करने पर पता चला हैं की वह छत्री "महाचंद" मेघवंशी पर ही बनी हैं !हाँ यह जरुर हैं की वह छत्री खींवासर के ठाकुर साहेब ने ही बनवाई हैं 

साभार -
मेघवंश इतिहास (ऋषि पुराण)
लेखक स्वामी गोकुलदासजी 
अलख स्थान डुमादा (अजमेर )
चित्र साभार  -गूगल     

रविवार, 21 अप्रैल 2013

भक्त धारुजी (धारु रख

                         महान मेघवाल भक्त धारुजी (धारु रख )
धारुजी गोत्र पंवार (अग्नि वंश )मेघवंशी थे !ये राव जोधाजी राठोड (जोधपुर संस्थापक )के पड्पोत्र तथा गांगाजी के पुत्र रावल मालदेव के समय मोजूद थे !मालदेवजी की स्त्री रूपादे और धारुजी ग्राम दुधवा (मारवाड़ )के रहने वाले थे ,दोनों बचपन से ही एक साथ रहते थे ,बाद में उगमसिंह भाटी से दीक्षा लेकर दोनों सत्संग में प्रवृत हो गये !रूपादे का विवाह जब मालदेव जी के साथ हुआ तब धारुजी को उनके दहेज़ में देकर रूपादे के साथ गढ़ मेंहवा (मालाणी)में भेज दिया था तब से वे वही रहने लगे !धारु जी साधू संतो की सत्संग में अधिक रहा करते थे और समय समय पर इनके यंहा भी संतो का समागम (सत्संग )होता रहता था ,बाई रूपादे भी कभी कभी चोरी चुपके धारुजी के घर सत्संग में आ जाया करती थी !सत्संगी होने की वजह से इनमे परस्पर किसी प्रकार का भेद-भाव जातीयता के आधार पर नही था !धारुजी अपना जातीय व्यवसाय (वस्त्र बुनने का कार्य करके अपनी जीविका निर्वाह करते )और साधू संतो की सेवा करते थे !

मुग़ल काल में बहती उगमसिंह ,धारुजी ,रूपादे ओर तत्कालीन अन्य साधू संत भी सत्संग ओर संत मत (कुंडा पंथ ) के द्वारा सेकड़ो दलित जातियों को शुद्ध तथा संगठन का हिन्दू धर्म की बड़ी भारी से सेवा की थी !
एक समय भाटी उगमसिंह धारुजी के घर आये ओर सत्संग करने का निश्चय करके समस्त सत्संगी तथा संतजनों को धारुजी द्वारा निमंत्रण दिया गया ,बाई रूपादे को भी निमंत्रण दिया गया !शाम को सत्संग शुरू हुआ ,सर्व संतजन उपस्थित हो गये ,मगर रूपादे की अनु उपस्थिती सबको खटक रही थी !बाई रूपा बड़ी कठिनता से मालदेवजी से छिपकर कई मुसीबतों का सामना करती हुई धारुजी के घर पहुंची !इधर किशी प्रकार से मालदेवजी की दूसरी पत्नी चंद्रावल की दासी ने उसे देख लिया ओर तत्काल रावल मालदेव को जगाया ओर रूपा दे के वंहा जाने की खबर दी तथा उनका क्रोध बढ़ने के लिए दो -चार चुभने वाली बाते बताई !रावल मालदेव उसी समय धारुजी के घर आये तो आगे सत्संग में रूपादे कोटवाली (सेवा टहल )करते देखकर आग बबूला हो गए लेकिन साधू संतो के पराक्रम से डरकर वंहा तो कुछ नही कह सके किन्तु वापिस आकर दरवाजे को रोक कर बैठ गये !रूपादे को मालदेवजी के आने खबर लग गई थी ,उसने विदा होते समय सब संतो से प्राथना की कि मेरा यह अंतिम प्रणाम है,क्योकि मालदेवजी स्वय यंहा आकर देख कर गये हैं ,अत:वे अब मुझे कदापि जीवित नही छोडेगे !यह सुनकर सबको बड़ा दुःख हुआ ओर उनकी रक्षा के लिए भगवान श्री रामदेवजी से प्रार्थना करने लगे !जब ज्यो ही किले के दरवाजे पर पंहुची ,तयो ही मालदेवजी ने उसे रोक कर तलवार निकाल शीश काटने उधत हो गये ,किन्तु तत्काल भगवान श्री रामदेवजी ने गुप्त रूप से तलवार को ऊपर ही रोक दिया !यह देखकर मालदेवजी बड़े शंकित हुए ,फिर भी उन्होंने रूपादे से पुछा कि रात्रि में तू कंहा गई थी ?रूपा दे ने जवाब दिया कि बाग में फुल लेन गई थी !मालदेवजी ने कहा कि यंहा नजदीक में कोई बाग ही नही हैं ,झूठ क्यों बोलती हो मैने तुझे धारु मेघवाल के घर देखा हैं ,फिर भी तू अगर बाग के लिए कहती हैं तो मुझे फुल बता !रूपादे ने बह्ग्वान से प्रार्थना कि हे प्रभु जिस प्रकार आपने द्रोपदी कि लाज रखी थी उसी प्रकार आज मेरी भी रक्षा करे !यह कहकर ज्यो ही उसने थाल को निकालकर दिखाया तो तो क्या देखते हैं की रूपादे सत्संग से जो प्रसाद ली थी उसके फुल बन गये हैं !रूपादे की इस चमत्कृत शक्ति को देख कर स्वयं मालदेव जी उसके पैरो में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगे !रूपादे ने कंहा की यह सब भाई धारू मेघवाल की कृपा हैं !वही तुम्हे माफ़ कर सकता हैं !रावल मॉलदेवजी बड़े आतुर होकर रूपा दे से प्राथना करने लगे की मझे धारुजी के घर इसी समय ले चलो और मुझे क्षमा करके तुम्हारी सत्संग में ले लो !रूपादे मॉलदेवजी को साथ लेकर उसी समय धारुजी के घर आई और सब संतो ने उन्हें क्षमा करके दुसरे दिन किले में सत्संग नियत कर सर्व संत महात्माओ को धारुजी सहित वह बुलाकर सवयम मॉलदेवजी ने दीक्षा ली और जीवन पर्यन्त सत्संग में लीं रहकर अंत में धारुजी के बताये मार्ग पर चलकर अपने योगबल के द्वारा विक्रम संवत 1619 इ., सन 1562 अंतर्ध्यान हो गये !कहते हैं की ये सात जीव एक ही साथ योगबल द्वारा अंतर्ध्यान हुए थे !इनके नाम ये हैं १ रावल मॉलदेवजी २ बाई रूपादे ३ धारूजी ४ माता देवू (धारू जी के बड़े भाई की स्त्री )५ एलू ६ दलु कुम्हार ७ नाम देव छिपा!इनमे धारुजी सबमे मुख्य मने जाते थे और अन्यसब इन्हें गुरु के सामान मानकर इनके बताये मार्ग पर चलते थे !

इनका स्थान तलवाडा (मालाणी) बालोतरा जिला बाड़मेर राजस्थान में लूनी नदी के किनारे ,रावल मल्लिनाथजी के मंदिर के पास हैं !धारुजी भी इस मेघवंश जाती के प्रशिद्ध भक्त थे !इस मेघवंश जाती में " मालाणी"धुणी(जो चार धुणीयो ,में समसवाणी ,रामनिवाणी,हरचंदवाणी और चार मालाणी इन्ही से मानी जाती हैं !

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

संत किसनदासजी


संत किसनदासजी 
रामस्नेही संप्रदाय के संत कवि

रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त साहब थे। उनका प्रादुर्भाव 18 वीं शताब्दी में हुआ। रेण- रामस्नेही संप्रदाय में शुरु से ही गुरु- शिष्य की परंपरा चलती अंायी है। नागौर जिले में रामस्नेही संप्रदाय की परंपरा संत दरियावजी से आरंभ होती है। ंसंत दरियावजी के इन निष्पक्ष व्यवहार एवं लोक हितपरक उपदेशों से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य बने, जिन्होंने राजस्थान के विभिन्न नगरों व कस्बों में रामस्नेही-पंथ का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इनके शिष्यों में संत किसनदासजी अतिप्रसिद्ध हुए।

संत किसनदासजी दरियावजी साहब के चार प्रमुख शिष्यों में से एक हैं। इनका जन्म वि.सं. 1746 माघ शुक्ला 5 को हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी (मेघवाल ) थे। इनकी जन्म भूमि व साधना स्थली टांकला ( नागौर ) थी। ये बहुत ही त्यागी, संतोषी तथा कोमल प्रवृत्ति के संत माने जाते थे। कुछ वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने वि.1773 वैशाख शुक्ल 11 को दरियाव साहब से दीक्षा ली।

इनके 21 शिष्य थे। खेड़ापा के संत दयालुदास ने अपनी भक्तमाल में इनके आत्मदृष्टा 13 शिष्यों का जिक्र किया है, जिसके नाम हैं -1. हेमदास, 2. खेतसी, 3.गोरधनदास, 4. हरिदास ( चाडी), 5. मेघोदास ( चाडी), 6. हरकिशन 7. बुधाराम, 8. लाडूराम, 9. भैरुदास, 10. सांवलदास, 11. टीकूदास, 12. शोभाराम, 13. दूधाराम। इन शिष्य परंपरा में अनेक साहित्यकार हुए हैं। कुछ प्रमुख संत- साहित्यकारों को इस सारणी के माध्यम से दिखलाया जा रहा है। कई पीढियों तक यह शिष्य- परंपरा चलती रही।

संत दयालुदास ने किसनदास के बारे में लिखा है कि ये संसार में रहते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त थे तथा घट में ही अघटा ( निराकार परमात्मा ) का प्रकाश देखने वाले सिद्ध पुरुष थे - 

भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।
पदम गुलाब स फूल, जनम जग जल सूं न्यारा।
सीपां आस आकास, समंद अप मिलै न खारा।।
प्रगट रामप्रताप, अघट घट भया प्रकासा।
अनुभव अगम उदोत, ब्रह्म परचे तत भासा।।
मारुधर पावन करी, गाँव टूंकले बास जन।
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।। -- भक्तमाल/ छंद 437 

किसनदास की रचना का एक उदाहरण दिया जा रहा है - 

ऐसे जन दरियावजी, किसना मिलिया मोहि।।1।।
बाणी कर काहाणी कही, भगति पिछाणी नांहि।
किसना गुरु बिन ले चल्या स्वारथ नरकां मांहि।।2।।
किसना जग फूल्यों फिरै झूठा सुख की आस।
ऐसों जग में जीवणों ज्यूं पाणी मांहि पतास।।3।।
बेग बुढापो आवसी सुध- बुध जासी छूट।
किसनदास काया नगर जम ले जासी लूट।।4।।
दिवस गमायो भटकतां रात गमाई सोय।
किसनदास इस जीव को भलो कहां से होय।।5।।
कुसंग कदै न कीजिये संत कहत है टेर।
जैसे संगत काग की उड़ती मरी बटेर।।6।।
उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का इमृत बैण।
किसनदास वे नित मिलो, रामसनेही सैण।।7।।
दया धरम संतोष सत सील सबूरी सार।
किसनदास या दास गति सहजां मोख दुवार।।8।।
निसरया किस कारणे, करता है, क्या काम।
घर का हुआ न घाट का, धोबी हंदा स्वान।।9।। 
इनका बाणी साहित्य श्लोक परिमाण लगभग 4000 है। जिनमें ग्रंथ 14, चौपाई 914, साखी 664, कवित्त 14, चंद्रायण 11, कुण्डलिया 15, हरजस 22, आरती 2 हैं। विक्रम सं. 1825 आषाढ़ 7 को टांकला में इनका निधन हो गया।