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गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

maya meghwal श्री माया मेघऋषि जी कथा

                             श्री माया मेघऋषि जी कथा
मायाजी मेघऋषि जी मेघवाल समाज के महान संत हुए है| वे पाटन मेँ एक कुटिया मेँ रहते तथा भगवान का सिमरन करते थे| उस समय पाटन का राजा सिद्धराज सोलंकी था| एक बार राजा ने जनहितार्थ तालाब खुदवाना प्रारंभ किया| जसमा नाम की एक स्त्री वहाँ काम पर आती थी| वह बहुत ही सुंदर थी इसलिए राजा उस पर मोहित हो गया तथा उसको अपनी पटराणी बनाने का ख्वाब देखने लगा| एक दिन राजा ने जसमा का पीछा कर उसे रोका| राजा जसमा से बोला कि मैँ तुमको अपनी पटराणी बनाना चाहता हूँ| जसमा तो एक सती तथा धार्मिक स्त्री थी इसलिए वह राजा की अभद्र बात सहन नही कर सकी|उसने राजा को शाप देते हुए कहा कि आपने जो जनहितार्थ तालाब खुदवाया है उसमे कभी बुँद भी पानी नही ठहरेगा तथा खारा ही होगा| और देखते ही देखते जसमा अपने प्राण देने लगी | यह देखकर राजा बहुत ही घबराया तथा उसके चरणोँ मेँ गिर पडा| राजा क्षमा याचना करते हुए बोला आप मेरी माता समान हो मुझसे अनजाने मेँ यह पाप हो गया| आप मुझ पापी को क्षमा कर शाप वापस ले लिजिए| जसमा ने कहा कि तीर कमान से तथा शब्द जुबान से निकले हुए वापस नही होता| राजा फिर बोला आप कुछ न कुछ उपाय बताइए अन्यथा यह तालाब किसी अर्थ का नही रहेगा| जसमा ने अंतिम साँसे लेते हुए कहा कि यदि कोई बत्तीस लक्षणोँ वाला व्यक्ति इस तालाब मेँ काया होमेगा तो ही इस शाप से मुक्ति मिल सकती है| और जसमा प्राणमुक्त हो गई| राजा को अब चिँता होने लगी कि आखिर बत्तीस लक्षणोँ वाले व्यक्ति को कहाँ ढुँढने जाएँ| उसने काशी से विद्वान बुलवाया और कहा कि आप शास्त्रोँ का अध्ययन कर ऐसे व्यक्ति का नाम बताओ| विद्वान बोले राजन आप के राज्य मेँ केवल दो ही ऐसे व्यक्ति है| राजा ने पुछा कौन कौन| विद्वान बोले कि एक तो आप स्वयं तथा दूसरे मायाजी मेघवाल जिनकी नगर से बाहर कुटिया मेँ हरि का सिमरन करते है| राजा ने अपने सैनिको को बुलाया और कहा कि जाओ और मायाजी को दरबार मेँ हाजिर करो| सैनिक मायाजी को प्रणाम कर बोले महाराज आप हमारे साथ दरबार मेँ चलेँ राजाजी ने बुलाया| मायाजी दरबार मेँ पहुँचे तथा राजा के सामने हाथ जोडकर खडे हो गए| राजा ने भी मायाजी को प्रणाम किया और उनको दरबार मेँ प्रयोजन बताया| राजा ने कहा केवल हम दोनो पर बात अटकी है| राजा ने कहा कि या तो आप काया होमे तो आप का बडा उपकार होगा अन्यथा मुझे ही यह काम करना पडेगा|मायाजी बोले मै काया होमने को तैयार हूँ| दूसरे दिन नगरवासी गांजो बाजो के साथ पालकी मेँ बिठाकर मायाजी को तालाब पर ले गए| मायाजी ने सभी नगरवासियोँ को अंतिम प्रणाम किया| फिर मायाजी ने अग्नि देवता का आहवान किया| कुछ ही क्षणोँ मेँ स्वतं ही अग्निकुँण्ड बना तथा अग्नि प्रज्वलित होने लगी| मायाजी ने सिमरन कर कुँण्ड मेँ पाँव धरे और देखते ही देखते पूर्ण रुप से अग्निकुँण्ड मेँ समा गए| कुछ देर बाद तालाब मीठे पानी से लबालब भर गया| राजा व नगरवासी मेँ खुशी की लहर दौड गई| इस प्रकार मायाजी ने जनहितार्थ अपने प्राणोँ की आहुति देकर तालाब का जल मीठा किया| मेघवँश सदैव मायाजी का ऋणी रहेगा जिनके बलिदान से समाज को पारंपरिक रीति रिवाजोँ से मुक्ति दिलाई| श्री माया मेघऋषि जी के चरणोँ मेँ शत शत नमन अभिवंदन

amar shahid rajaram meghwal (rajiya) jodhpur fort

              अमर शहीद राजाराम मेघवाल (राजिया )



शेर नर राजाराम मेघवाल भी जोधपुर नरेशो के हित के लिए बलिदान हो गए थे !मोर की पुंछ के आकर !वाले जोधपुर किले की नीव जब सिंध के ब्राह्मण ज्योतिषी गनपत ने राव जोधाजी के हाथ से वि ० स० 1516 में रखवाई गई तब उस नीव में मेघवंशी राजाराम जेठ सुदी 11 शनिवार (इ ० सन 1459 दिनाक 12 मई ) को जीवित चुने गए क्यों की राजपूतो में यह एक विश्वास चला आ रहा था की यदि किले की नीव में कोई जीवित पुरुष गाडा जाये तो वह किला उनके बनाने वालो के अधिकार में सदा अभय रहेगा !इसी विचार से किले की नीव में राजाराम (राजिया )गोत्र कडेला मेघवंशी को जीवित गाडा गया था ! उसके उअपर खजाना और नक्कार खाने की इमारते बनी हुई हैं ,इनके साथ गोरा बाई सती हुई थी !राजिया के सहर्ष किये हुए आत्म त्याग एवम स्वामी भक्ति की एवज में राव जोधाजी राठोड ने उनके वंशजो को जोधपुर किले पास सूरसागर में कुछ भूमि भी दी जो राज बाग के नाम से प्रसिद्ध हैं !और होली के त्यौहार पर मेघवालो की गेर को किले में गाजे बजे साथ जाने का अधिकार हैं जो अन्य किसी जाती को नही हैं !परन्तु उस वीर के आदर्श बलिदान के सामने यह रियायते कुछ भी नही हैं !

कंही -कंही राजिया और कालिया दो पुरुषो को नीव में जीवित गाड़े जाने का वर्तान्त भी लिखा मिलता हैं जो दोनों ही मेघवाल जाती के थे ! 

इस अपूर्व त्याग के कारण राज्य की और से प्रकाशित हुई कई हिंदी और अंग्रेजी पुस्तको में राजिया भाम्बी के नाम का उल्लेख श्रदा के साथ किया हैं ! 

आज से लगभग 135 वर्ष पहले इ ० सन 1874 (विक्रम संवत 1931 )में जोधपुर राज्य ने "THI JODHPUR FORT "नाम की अंग्रेजी पुस्तिका प्रकाशित की थी ,उनके पेज 1 पंक्ति 12 में अमर शहीद राजाराम मेघवंशी (भाम्बी )के आदर्श त्याग के विषय में यह लिखा हैं :-
-------------"its (Jodhpur )foundation was laid in 1459 A.D. when a man "bhambi rajiya "was interred alive in tha foundeto invoke good fortuneon its defenders and to ensurs its imprognabilityt "............"(vide "tha jodhpur for"page 1 line 12 frist edition ,1874 A.D.published by jodhpur state )
अर्थात ........इस किले (जोधपुर गढ़ ) की नीव इ ० सन 1459 (विक्रम संवत 1516 )में रखी थी तब एक राजिया भाम्बी (मेघवंशी)इस किले के स्थायित्व के लिए जीवित इसकी नीव में चुना गया )
वि ०स ० 1946 फाल्गुन सुदी 3 शनिवार( इ ०सन 1890 तारीख 22 फरवरी )को इंग्लेंड के ,राजकुमार प्रिंस एल्बर्ट विकटर ऑफ़ वेल्स ,भारत यात्रा करते जोधपुर तब स्टेट की और से "गाइड टु जोधपुर "(जोधपुर पथ प्रदर्शक )नाम की अंग्रेजी पुस्तक प्रकाशित हुई !उसके पृष्ठ 7 में राजाराम के लिए छपा :-.......................................
"......."tha fort (jodhpur)...............when tha foundation was laid ,aman rajiya bhambi by name ,was interred alive ,as an ausppicious omen,in a corner over which were built two apartments now occupied by tha treasury and tha nakar khana (country band) .in consideration of this sacrfice ,rao jodha bestowed a piece of land "raj bai bag"near sursagar,on tha desendants of tha deceased and exempted them from "begar"or forced lebour .........("vide guide to jodhpur 1890 A<D<page 7 published by tha order of H.H. tha maharaja jaswant singh G.C.S.I.,and maharaj dhiraj col .sir pratap singh K.C.S.I.&c. jodhpur on tha auspicious of tha visit his royal highness tha prince albert victor of wales. 1890 A.D. page 7)


अर्थात .................जब जोधपुर दुर्ग की नीव (इ ० सन 1459 में )रखी गई तब शुभ सगुन तथा उसके स्थायित्व के लिए राजिया भाम्बी नाम का पुरुष उसमे जिन्दा चुना गया !जन्हा पर खजाना और नक्कारखाना की इमारते बनी हुई हैं !इस क़ुरबानी के लिए राव जोधा ने उसके वंशधरो को कुछ भूमि सूरसागर (जोधपुर )के पास "राजबाग"नाम से इनायत की और उन्हें नि:शुल्क सेवा से बरी कर दिया !"

इ ० सन 1900 (वि ० स ० 1957 ) में राजपुताना के सर्जन लेफ्टिनेन्ट कर्नल डाक्टर एडम्स आई ० ऍम ० एस०; ऍम ० डी ० (इत्यादी)जोधपुर ने "दी वेस्टर्न राजपुताना स्टेट "नाम का अंग्रेजी में सचित्र इतिहास लन्दन में छाप कर पुन :प्रकाशित ! उसके पृष्ठ 81 में भी राजाराम के त्याग का उल्लेख हैं !

इस तरह से तत्कालीन जोधपुरस्टेट द्वारा प्रकाशित कई पुस्तको में राजाराम मेघवाल (राजिया)के बलिदान का उल्लेख मिलता हैं !

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

महान मेघवाल संत "महाचंद ऋषि "


                                                महान मेघवाल संत "महाचंद ऋषि "




पडिहार (प्रतिहार पुरिहार)कुल में एक अत्यंत प्रतापशाली वीरशिरोमणि प्रसिद्ध राजा "नाहड़राव "(नाहरराव)हुए हैं !इनकी राजधानी मंडोर (मंडावर) थी जिसको साधू भाषा संस्कृत में "मन्दोदरी"कहते हिं !
यह वही स्थान हैं जंहा रावण ने मन्दोदरी के साथ शादी की थी , नाहड़राव प्रसिद्ध प्रचंड वीर था जो प्रथवीराज चोहान का सामंत था !
इनके शरीर में कुष्ठ की बीमारी थी !एक समय यह नाग पहाड़ के जंगल आखेट खेल रहे थे ,संयोग से एक सूअर इनके सामने से गुजरा नाहर राव ने इनका पीछा !भागते भागते वह सूअर एक मुंजे की झाड़ी गायब हो गया !यह उन्हें ढूंढते-ढूंढते परेशां हो गये लेकिन उसका कंही पता नहीं चला !धुप और प्यास से व्याकुल होकर नाहड़राव पानी की खोज करने लगे ,अंतमें जरा से खड्डे में पानी मिला !राजा ने घोड़े से उतर कर उस पानी हाथ मुंह धोया और पानी पिया तो देखते क्या हैं, की उनके शरीर का कुष्ट दूर हो गया हैं !नाहड़ के विस्मय का ठिकाना नही रहा ,उन्होंने वंहा पर खुदवाना आरम्भ किया और काफी लम्बी छोड़ी दुरी में खुदवा दिया ,लेकिन उस गड्डे से जयादा नही आया !फिर उन्होंने काशी से पंडितो को बुला कर वंहा यज्ञ कराया ,पंडितो ने उस यज्ञमें नर बलि देने के लिए कहा !नाहड़राव ने इसकी सुचना आम जनता में करवा दी ,यह सुन कर वन्ही अजयपाल जी की धुनी के पास पहाड़ में गाये चरते हुए 'महाचंद "नामक मेघवाल ने आकर प्रसन्नता पूर्वक उस यज्ञ में परोपकरार्थ अपनी बलि दे दी !देखते ही देखते उस गड्डे में से पानी उबकने लगा और वंहा पर पानी भर गया !


नाहड़ राव ने वंहा पर वि ० स ० 1114 में तालाब खुदवा कर बंधवा दिया जो वर्तमान "पुष्कर" (राजस्थान में
अजमेर के पास ) के नाम से मशहूर हैं !ओर एक भी शुरू करवा दिया ,महाचंद गाये चराता था ,इसलिए उसके नाम से एक घाट बंधवाया ,जिसका नाम गऊ घाट हैं ! यह गऊ घाट पुष्कर के अन्य घटो में प्रशिद्ध हैं ,और सबसे पहले का हैं !इस पर आरम्भ से ही मेघवंशियो के गुरु ब्राह्मणों का अधिकार रहा हैं !बिच में अन्य ब्राह्मणों ने इस पर अपना अधिकार करना चाहा ,और कई दिनों तक आपस में झगड़ा चलता रहा !अंत में छोटुरामजी गुरु ब्राह्मण के पोते "हाथीरामजी" को अन्य पंडो ने एक रूपये के स्टाम्प पर वि ० स ० 1960 में पंचायत द्वारा राजीनामा लिख कर दे दिया ,और इस पसिद्ध गऊ घाट पर मेघवंसशी आदि अन्य 6 जातियों को भी स्नान करने और दान दक्षिणा लेने का अधिकार दे दिया !कहा जाता हैं की एक समय खींवासर(मारवाड़ )के ठाकुर साहेब यंहा स्नान करने के लिए आये थे !उन्होंने स्नान कर यहाँ गऊ घाट पर विश्राम किया !उनके सपने में आकर महाचंदजी ने अपने त्याग और बलिदान का सन्देश दिया और यह भी कहा की यदि कोई यंहा मेरी यादगार
बना दे तो उसकी मनोकामना सफल हो जाएगी !उक्त ठाकुर साहेब ने उनके बलिदान के स्थान पर एकछतरी बनवा दी ,जो गऊ घाट के सामने स्थित हैं !स्वार्थी और धर्म के ठेकेदारों ने उंच -नीच की भावना से मेघवंशियो के इस अपूर्व त्याग और गोरवमय बलिदान को नष्ट करने के लिए यह छत्री उन्ही ठाकुर की बतलाते हैं ,लेकिन काफी छानबीन और खोज करने पर पता चला हैं की वह छत्री "महाचंद" मेघवंशी पर ही बनी हैं !हाँ यह जरुर हैं की वह छत्री खींवासर के ठाकुर साहेब ने ही बनवाई हैं 

साभार -
मेघवंश इतिहास (ऋषि पुराण)
लेखक स्वामी गोकुलदासजी 
अलख स्थान डुमादा (अजमेर )
चित्र साभार  -गूगल     

रविवार, 21 अप्रैल 2013

भक्त धारुजी (धारु रख

                         महान मेघवाल भक्त धारुजी (धारु रख )
धारुजी गोत्र पंवार (अग्नि वंश )मेघवंशी थे !ये राव जोधाजी राठोड (जोधपुर संस्थापक )के पड्पोत्र तथा गांगाजी के पुत्र रावल मालदेव के समय मोजूद थे !मालदेवजी की स्त्री रूपादे और धारुजी ग्राम दुधवा (मारवाड़ )के रहने वाले थे ,दोनों बचपन से ही एक साथ रहते थे ,बाद में उगमसिंह भाटी से दीक्षा लेकर दोनों सत्संग में प्रवृत हो गये !रूपादे का विवाह जब मालदेव जी के साथ हुआ तब धारुजी को उनके दहेज़ में देकर रूपादे के साथ गढ़ मेंहवा (मालाणी)में भेज दिया था तब से वे वही रहने लगे !धारु जी साधू संतो की सत्संग में अधिक रहा करते थे और समय समय पर इनके यंहा भी संतो का समागम (सत्संग )होता रहता था ,बाई रूपादे भी कभी कभी चोरी चुपके धारुजी के घर सत्संग में आ जाया करती थी !सत्संगी होने की वजह से इनमे परस्पर किसी प्रकार का भेद-भाव जातीयता के आधार पर नही था !धारुजी अपना जातीय व्यवसाय (वस्त्र बुनने का कार्य करके अपनी जीविका निर्वाह करते )और साधू संतो की सेवा करते थे !

मुग़ल काल में बहती उगमसिंह ,धारुजी ,रूपादे ओर तत्कालीन अन्य साधू संत भी सत्संग ओर संत मत (कुंडा पंथ ) के द्वारा सेकड़ो दलित जातियों को शुद्ध तथा संगठन का हिन्दू धर्म की बड़ी भारी से सेवा की थी !
एक समय भाटी उगमसिंह धारुजी के घर आये ओर सत्संग करने का निश्चय करके समस्त सत्संगी तथा संतजनों को धारुजी द्वारा निमंत्रण दिया गया ,बाई रूपादे को भी निमंत्रण दिया गया !शाम को सत्संग शुरू हुआ ,सर्व संतजन उपस्थित हो गये ,मगर रूपादे की अनु उपस्थिती सबको खटक रही थी !बाई रूपा बड़ी कठिनता से मालदेवजी से छिपकर कई मुसीबतों का सामना करती हुई धारुजी के घर पहुंची !इधर किशी प्रकार से मालदेवजी की दूसरी पत्नी चंद्रावल की दासी ने उसे देख लिया ओर तत्काल रावल मालदेव को जगाया ओर रूपा दे के वंहा जाने की खबर दी तथा उनका क्रोध बढ़ने के लिए दो -चार चुभने वाली बाते बताई !रावल मालदेव उसी समय धारुजी के घर आये तो आगे सत्संग में रूपादे कोटवाली (सेवा टहल )करते देखकर आग बबूला हो गए लेकिन साधू संतो के पराक्रम से डरकर वंहा तो कुछ नही कह सके किन्तु वापिस आकर दरवाजे को रोक कर बैठ गये !रूपादे को मालदेवजी के आने खबर लग गई थी ,उसने विदा होते समय सब संतो से प्राथना की कि मेरा यह अंतिम प्रणाम है,क्योकि मालदेवजी स्वय यंहा आकर देख कर गये हैं ,अत:वे अब मुझे कदापि जीवित नही छोडेगे !यह सुनकर सबको बड़ा दुःख हुआ ओर उनकी रक्षा के लिए भगवान श्री रामदेवजी से प्रार्थना करने लगे !जब ज्यो ही किले के दरवाजे पर पंहुची ,तयो ही मालदेवजी ने उसे रोक कर तलवार निकाल शीश काटने उधत हो गये ,किन्तु तत्काल भगवान श्री रामदेवजी ने गुप्त रूप से तलवार को ऊपर ही रोक दिया !यह देखकर मालदेवजी बड़े शंकित हुए ,फिर भी उन्होंने रूपादे से पुछा कि रात्रि में तू कंहा गई थी ?रूपा दे ने जवाब दिया कि बाग में फुल लेन गई थी !मालदेवजी ने कहा कि यंहा नजदीक में कोई बाग ही नही हैं ,झूठ क्यों बोलती हो मैने तुझे धारु मेघवाल के घर देखा हैं ,फिर भी तू अगर बाग के लिए कहती हैं तो मुझे फुल बता !रूपादे ने बह्ग्वान से प्रार्थना कि हे प्रभु जिस प्रकार आपने द्रोपदी कि लाज रखी थी उसी प्रकार आज मेरी भी रक्षा करे !यह कहकर ज्यो ही उसने थाल को निकालकर दिखाया तो तो क्या देखते हैं की रूपादे सत्संग से जो प्रसाद ली थी उसके फुल बन गये हैं !रूपादे की इस चमत्कृत शक्ति को देख कर स्वयं मालदेव जी उसके पैरो में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगे !रूपादे ने कंहा की यह सब भाई धारू मेघवाल की कृपा हैं !वही तुम्हे माफ़ कर सकता हैं !रावल मॉलदेवजी बड़े आतुर होकर रूपा दे से प्राथना करने लगे की मझे धारुजी के घर इसी समय ले चलो और मुझे क्षमा करके तुम्हारी सत्संग में ले लो !रूपादे मॉलदेवजी को साथ लेकर उसी समय धारुजी के घर आई और सब संतो ने उन्हें क्षमा करके दुसरे दिन किले में सत्संग नियत कर सर्व संत महात्माओ को धारुजी सहित वह बुलाकर सवयम मॉलदेवजी ने दीक्षा ली और जीवन पर्यन्त सत्संग में लीं रहकर अंत में धारुजी के बताये मार्ग पर चलकर अपने योगबल के द्वारा विक्रम संवत 1619 इ., सन 1562 अंतर्ध्यान हो गये !कहते हैं की ये सात जीव एक ही साथ योगबल द्वारा अंतर्ध्यान हुए थे !इनके नाम ये हैं १ रावल मॉलदेवजी २ बाई रूपादे ३ धारूजी ४ माता देवू (धारू जी के बड़े भाई की स्त्री )५ एलू ६ दलु कुम्हार ७ नाम देव छिपा!इनमे धारुजी सबमे मुख्य मने जाते थे और अन्यसब इन्हें गुरु के सामान मानकर इनके बताये मार्ग पर चलते थे !

इनका स्थान तलवाडा (मालाणी) बालोतरा जिला बाड़मेर राजस्थान में लूनी नदी के किनारे ,रावल मल्लिनाथजी के मंदिर के पास हैं !धारुजी भी इस मेघवंश जाती के प्रशिद्ध भक्त थे !इस मेघवंश जाती में " मालाणी"धुणी(जो चार धुणीयो ,में समसवाणी ,रामनिवाणी,हरचंदवाणी और चार मालाणी इन्ही से मानी जाती हैं !

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

संत किसनदासजी


संत किसनदासजी 
रामस्नेही संप्रदाय के संत कवि

रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त साहब थे। उनका प्रादुर्भाव 18 वीं शताब्दी में हुआ। रेण- रामस्नेही संप्रदाय में शुरु से ही गुरु- शिष्य की परंपरा चलती अंायी है। नागौर जिले में रामस्नेही संप्रदाय की परंपरा संत दरियावजी से आरंभ होती है। ंसंत दरियावजी के इन निष्पक्ष व्यवहार एवं लोक हितपरक उपदेशों से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य बने, जिन्होंने राजस्थान के विभिन्न नगरों व कस्बों में रामस्नेही-पंथ का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इनके शिष्यों में संत किसनदासजी अतिप्रसिद्ध हुए।

संत किसनदासजी दरियावजी साहब के चार प्रमुख शिष्यों में से एक हैं। इनका जन्म वि.सं. 1746 माघ शुक्ला 5 को हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी (मेघवाल ) थे। इनकी जन्म भूमि व साधना स्थली टांकला ( नागौर ) थी। ये बहुत ही त्यागी, संतोषी तथा कोमल प्रवृत्ति के संत माने जाते थे। कुछ वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने वि.1773 वैशाख शुक्ल 11 को दरियाव साहब से दीक्षा ली।

इनके 21 शिष्य थे। खेड़ापा के संत दयालुदास ने अपनी भक्तमाल में इनके आत्मदृष्टा 13 शिष्यों का जिक्र किया है, जिसके नाम हैं -1. हेमदास, 2. खेतसी, 3.गोरधनदास, 4. हरिदास ( चाडी), 5. मेघोदास ( चाडी), 6. हरकिशन 7. बुधाराम, 8. लाडूराम, 9. भैरुदास, 10. सांवलदास, 11. टीकूदास, 12. शोभाराम, 13. दूधाराम। इन शिष्य परंपरा में अनेक साहित्यकार हुए हैं। कुछ प्रमुख संत- साहित्यकारों को इस सारणी के माध्यम से दिखलाया जा रहा है। कई पीढियों तक यह शिष्य- परंपरा चलती रही।

संत दयालुदास ने किसनदास के बारे में लिखा है कि ये संसार में रहते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त थे तथा घट में ही अघटा ( निराकार परमात्मा ) का प्रकाश देखने वाले सिद्ध पुरुष थे - 

भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।
पदम गुलाब स फूल, जनम जग जल सूं न्यारा।
सीपां आस आकास, समंद अप मिलै न खारा।।
प्रगट रामप्रताप, अघट घट भया प्रकासा।
अनुभव अगम उदोत, ब्रह्म परचे तत भासा।।
मारुधर पावन करी, गाँव टूंकले बास जन।
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।। -- भक्तमाल/ छंद 437 

किसनदास की रचना का एक उदाहरण दिया जा रहा है - 

ऐसे जन दरियावजी, किसना मिलिया मोहि।।1।।
बाणी कर काहाणी कही, भगति पिछाणी नांहि।
किसना गुरु बिन ले चल्या स्वारथ नरकां मांहि।।2।।
किसना जग फूल्यों फिरै झूठा सुख की आस।
ऐसों जग में जीवणों ज्यूं पाणी मांहि पतास।।3।।
बेग बुढापो आवसी सुध- बुध जासी छूट।
किसनदास काया नगर जम ले जासी लूट।।4।।
दिवस गमायो भटकतां रात गमाई सोय।
किसनदास इस जीव को भलो कहां से होय।।5।।
कुसंग कदै न कीजिये संत कहत है टेर।
जैसे संगत काग की उड़ती मरी बटेर।।6।।
उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का इमृत बैण।
किसनदास वे नित मिलो, रामसनेही सैण।।7।।
दया धरम संतोष सत सील सबूरी सार।
किसनदास या दास गति सहजां मोख दुवार।।8।।
निसरया किस कारणे, करता है, क्या काम।
घर का हुआ न घाट का, धोबी हंदा स्वान।।9।। 
इनका बाणी साहित्य श्लोक परिमाण लगभग 4000 है। जिनमें ग्रंथ 14, चौपाई 914, साखी 664, कवित्त 14, चंद्रायण 11, कुण्डलिया 15, हरजस 22, आरती 2 हैं। विक्रम सं. 1825 आषाढ़ 7 को टांकला में इनका निधन हो गया।

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

महान संत श्री मिठुरामजी mahan sant shree mithuramji

                                     महान संत श्री मिठुरामजी 

   


                      गाँव माँडवला प्रकट ,स्वामी बुधावतार!


                     सपत्नी की कोख जन्मे आत्मज चार !!

                     वाध्य यंत्र में पूर्ण पटु,ज्येष्ठसूत गंगाराम !

                     पूनम पूर्ण ,विज्ञ वर ,चतुर्थ मिठुराम !!


महान संत श्री मिठुरामजी महाराज का जन्म विक्रम सवत 1971 की चेत्र मास कृष्ण पक्ष द्वितीया तिथी दिनांक 3 मार्च 1915 को उतराफाल्गुनी नक्षत्र में राजस्थान राज्य के जालोर जिले के स्वर्णगिरी पर्वत की गोद में स्थित माण्डवला नामक ग्राम में  जोगसन रिखवंशज   में  श्री बुद्धाराम जी के घर हुआ था !आपके पिताजी का नाम श्री बुद्धाराम जी एवम माता का नाम चम्पनी  देवी था !पिता श्री के चार पुत्रो में सबसे छोटे होने से आपको पिताजी का पूरा सानिध्धय मिला !

आपने 12 वर्ष की उम्र में स्वामी उत्तमरामजी के परम शिष्य स्वामी 
रणछारामजी महाराज रणजीत आश्रम बालोतरा से गुरु दीक्षा प्राप्त की थी !रणछारामजी महाराज ने खूब साहित्य रचना की व अपनी वाणियो एवम प्रवचनों समाज सुधार के कार्य किये ! स्वामी रणछारामजी महाराज वेदों के महान ज्ञाता थे ,जिनका भी पूरा सानिध्धय मिला जिनकी निश्रा में आपने वेद  ,पुराण,उपनिषद ,रामायण ,गीता का गहन अध्धयन कर इश्वर प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त किया !
इस प्रकार इश्वर प्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरान्त मिठुराम मुख 
से जो उपदेश वाणी प्रकट हुई अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थ पूर्ण हैं !स्वभावत : स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कोमलता दिखलाई पड़ती हैं ,उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था !इन्होने सदॆव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की और ध्यान न देते हुए धर्मसंरक्षण के साथ -साथ पाखंड खंडन का कार्य निरंतर चलाया ! दाम्भिक संत ,अनुभव शुन्य पोथी पंडित ,दुराचारी ,धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटको की उन्होंने अत्यंत तीव्र आलोचना की हैं !आपके अनुयायी देश- विदेश में बसे हुए हैं !महाराज श्री द्वारा रचित विभिन्न राग,रागनियो में भजन ,दोहे इत्यादि का गायन-श्रवण उनके अनुयायी आज भी बड़े  चाव से करते हैं !
 18 वर्ष की आल्पायु में ही आपका विवाह जालोर जिले के टापी गाँव के पालीवाल गोत्रीय करनीरामजी की सुपत्रि रंगुदेवी के साथ हुआ था !सपत्नी ने चार पुत्र और दो पुत्रिया जिसमे सबसे बड़े वालूराम ,रामचंद्र ,नवाराम,व पियारम और पुत्रिया सुआदेवी  व सकुदेवी को जन्म दिया !
आपके पिता स्वामी बुद्धारामजी देश विदेश का भ्रमण करते थे !आपने अपने पिताजी के साथ सिंध ,करांची ,पाकिस्थान ;अफगानिस्तान , गुजरात ,मध्यप्रदेश ,मालवा के साथ सम्पूर्ण हिन्दुस्थान का भ्रमण किया था !आपने वेदांत वाक्यों को मधुर विचित्र राग- रागनियो से भजनों के माध्यम से लोक कल्याण का पथ प्रशस्त  किया ! आपने चार धाम की यात्रा की व कई महात्माओ व महापुरुषों के दर्शन कर मन की अभिलाषा को पूर्ण किया !आपमें साहित्यिक की विचित्रता एवम पिंगल सार की अटूट  शक्ति थी की पल में ही छंद कुंडलिया एवम पद की रचना कर देते थे !आपके पदों की भाषा सामान्य होती थी ,जो सहज ही आमजन की समज में आ जाती थी ! ग्रहस्थी जीवन का निर्वहन करते हुए आपने समाज को एक नई दिशा प्रदान की !
वे कहते थे की इस संसार में जाती प्रथा का इतना जहर गुल गया हैं इस संसार में जो भी जीव-जन्तु हैं, कईरूप, रंग, वर्ण रखते हैं. उनके समूह को ही जाति कहागया है. जल, थल, आकाश के जीव अपनी-अपनी जातियाँ रखते हैं. पशु-पक्षियों और जल में रहने वाले मच्छ, कच्छ, व्हेल मछली जैसी जातियाँ पाई जाती हैं. मनुष्य जाति में अनेक जातियाँ बन गई हैं. अलग-अलग और नाना जातियाँ बनने का मूल कारण यह है कि ये जितने रंग, रूप और शरीर वाले जीव हैं, ये स्थूल तत्त्वों से बने हैं. इनके मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, विचार, भाव सूक्ष्म तत्त्वों से बने हैं. इनकी आत्माएँ कारण तत्त्वों से बनी हैं और प्रत्येक जीव जन्तु में ये जो पाँच तत्त्व हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश. इनका अनुपात एक जैसा नहीं होता. सबका अलग-अलग है. किसी में वायु तत्त्व और किसी में आकाश तत्त्व अधिक है. इन्हीं के अनुसार हमारे गुण, कर्म, स्वभाव अलग-अलग होते हैं. गुण तीन हैं. सतोगुण, रजो गुण और तमोगुण. किसी के अन्दर आत्मिक शक्ति, किसी में मानसिक शक्ति, किसी में शारीरिक शक्ति अधिक होती है. इसी तरह कर्म भी कई प्रकार के होते हैं अच्छे, बुरे, चोर, डाकू, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार भी किसी में अधिक, किसी में कम. किसी में प्रेम और सहानुभूति कम है किसी में अधिक. इस . जिस महापुरुष का शरीर, मन और आत्मा इन तत्त्वों से इस प्रकार बने हैं, जो समता या सन्तुलित रूप में हैं, उस महापुरुष को संत कहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर वासना उठती है और उसी वासना (कॉस्मिक रेज़) से सकारात्मक व नकारात्मक शक्तियाँ पैदा होती हैं जो स्थूल पदार्थों की रचना करती रहती हैं. वासना एक जैसी नहीं होतीइसलिए भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग उत्पन्न हो जाते हैं!
ऐसे सिद्ध पुरुष को अपनी अंतिम समय का पूर्वानुमान होने पर उन्होंने अपने सभी भक्त एवम प्रेमी जनों को बुलाकर सतसंग  की !अपने ज्येष्ठ पुत्र वालूराम को परिवार की जिम्मेदारी सोप कर विक्रम सवत 2027माघ वदि 14 सोमवार को प्रभात  के समय  पद्मासन लगाकर प्रभु भक्ति में लीन होकर इस नश्वर शरीर को छोड़ शिवलोक को प्यारे हो गए ! ऐसे महान संत को सत -सत नमन !!!
                                                                                                                                भगवानाराम मेघवाल



                                     भजन

 !!टेर !!  मिलिया आत्म राम हमने ,निर्मल होगी काया रे !

 गुरु हमारा केवा ,फुल गुलाब जेवा ,अन्दर में रमता देखिया रे !!१ !!


 चन्द्र सूरज प्रकाशा ,दोनों रेवे आकाशा ,कुदरत खेल बनाया रे !!२ !!


 इन्द्र करे चढवाई ,विरथा करे निरमाई ,बिजली रा चमकाया रे !!३ !!


मिठुराम जुग माई ,हरी का ध्यान लगाई , भव से पार लगाया रे !!४!!

                                             भजन 

               !!टेर !! सतगुरु मिलिया साचा ,मेरे हिरदे किया प्रकाशा!

ब्रह्नज्ञान सुनाया ,मेरी दुरमति दूर कराया ,कर्मन का किना नासा रे !!१ !!


गेबी शब्द घुरन्दा ,आट पोर आनन्दा ,नही काल का वासा रे !!२!!


सोवन शिखर सेलाणा ,सतगुरु से ओलखाणा,पाँच तीन नही पासा रे !!३!!


मिठुराम रंग भीना ,गुरु का शरणालीना , पल -पल गुरु का दासा रे !!४!!


                                   कुण्डलिया 




                    रामभजन बिना ,मनुष पशु समाना !




                 ज्यारे सिंगरु पुंछ ,काणा मोड़ा जाना !!



                 काणा मोड़ा जाना ,बड़ा पापी कहावे !



                 जमोरी पड़ेला मार ,भजन भोला पावे !!



                 भजन भोला पावे  ,मिठुराम मस्ताना !



                 राम भजन बिना ,मनुष पशु समाना!!





                                 कुण्डलिया  


             हिरणाकुश पापी बड़ा ,प्रहलाद राम ऊचार !




             नारायण नरसिह भये ,मिठुराम मन मार !!



             मिठुराम मन मार ,लुटेरा  लाटा लिना !



             अकर्म किना काम ,राम सुमिरन बिना !!



             राम सुमिरन बिना ,चलनो खोडे धार !



             हिरणाकुश पापी बड़ा ,प्रहलाद राम ऊचार !!

संत श्री परमानन्दजी महाराज (रणजीत आश्रम बालोतरा) sant shree parmanndji maharaj ranjit aashrm balotra



महान संत श्री परमानन्दजी का जन्म राजस्थान की धन्य धरा पर जालोर जिले के कनियाचल (सवर्णगिरी)पर्वत की गोद में जालोर से मात्र 1 8 km दुर जालोर बाड़मेर रोड पर  स्थित माण्डवला (mandwala)नामक गाँव में विराश (चौहान )गोत्रीय श्री वजारामजी के घर पर श्री मति मोती देवी की कोख से विक्रम संवत 1997 की श्रावण सुद 14 को हुआ था !आप चार भाई हंजाराम,पताराम,मंगनाराम ,वेलाराम थे !आपका सांसारिक नाम श्री पताराम था !आपके पिताजी कपडा बुनाई का काम करते थे ,जिसमे आप पिताजी के काम  में हाथ बंटाते थे लेकिन आपका मन तो प्रभु भक्ति में लगा रहता था,आपको साधू संतो की संगत का मोह था !18 वर्ष की उम्र में आप घर छोड़कर गाँव खेड़ा (सरदारगढ़)में एक चोधरी के यंहा पर नोकरी (हाली ) करने लगे !जंहा पर महान  योगी श्री केशरनाथ जी महाराज सिरे मंदिर पीठ जालोर तपस्या करते थे !
उनको देखकर पताराम के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया ,नोकरी (हाली ) का काम छोड़कर  आप  विक्रम संवत 2024 को आप माण्डवला आ गये !और इसी वर्ष आपने अपने घर पर ही चातुर्मास किया!और अगले 2 वर्ष अपने कुए पर ही चातुर्मास (खड़ी तपस्या)की ! विक्रम संवत 2027 में आप मेघवाल संत श्री मिठुरामजी महाराज के साथ बालोतरा में रामस्नेही संत श्री महंत रणछारामजी के पास जाकर अपने को इस सांसारिक मोह माया से मुक्त करअपने आप को महाराज के चरणों में स्थान दिलवाने की प्रार्थना की ,मेघवाल संत श्री मिठुरामजी के अनुनय -विनय से महंत रणछारामजी ने आपको शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया !
रणछारामजी महाराज ने खूब साहित्य रचना की वअपनी वाणियो एवम प्रवचनों समाज सुधार के कार्य किये !स्वामी रणछारामजी महाराज वेदों के महान ज्ञाता थे ,जिनका भी पूरा सानिध्धय मिला जिनकी निश्रामेंआपने वेद  ,पुराण,उपनिषद ,रामायण ,गीताका गहन अध्धयनकर इश्वर प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त किया !गुरु की सेवा करते हुए आप महाराज केइतने निकट आ गये की महाराज ने अपने प्रिय शिष्यको अपना उतराधिकारी घोषित कर दिया  !
गुरुवर श्री रणछारामजी के देवलोक होने पर आप विक्रम संवत 2032 में गुरुगादी पर विराजमान हुए !आपने रामद्वारा का निर्माण कर विस्तार करवाया ,और समाज हित में कार्य करते रहे !
विक्रम संवत  2058 चेत्र वदी 12 मंगलवार दिनाक 9 फरवरी 2002 को आप श्री ने नश्वर शरीर  को छोड़ शिव लोक को प्रयाण कर गये ! 
स्वामी रणछारामजी महाराज 
मुख्य मंदिर स्वामी रणछारामजी की समाधी 
महंत श्री परमानन्दजी की पूण्य तिथि उपस्थित जन समुदाय 


महंत श्री परमानन्दजी को श्रदा सुमन अर्पित करते हुए 


महंत श्री की समाधी पर उपस्थित जन समुदाय 


महंत श्री अमृतरामजी 

महंत गुरुवर श्री रणछारामजी की समाधी स्थल का दृश्य  
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महंत श्री परमानन्दजी की पूण्य तिथि पर आपकी जन्म भूमि से आये श्रद्धालु 




गुरुवर के चरणों  में मै 


 श्री  रणजीत आश्रम रामद्वारा बालोतरा  मुख्य प्रवेश द्वार